दोस्ती......इम्तीहान लेती है











कुदरत का सबसे नायाब तोहफा होता है- सच्चा दोस्त जो सिर्फ किस्मतवालों को मिलता है। लेकिन अगर किस्मत साथ न दे तो सच्चा दोस्त मिलने के बावजुद हमसे बिछड़ जाता है क्युँकि हम उसे पहचान नहीं पाते और जाने-अनजाने में उसे ठेस पहुँचा देते हैं। लेकिन क्या फिर हमें अपनी सफाई पेश करने का भी हक नहीं रहता? क्या हमारी एक गलती के सामने इतने सालों की दोस्ती कुछ भी नहीं?

      मुझे किसी ने कहा था कि हमारा हर रिश्ता ऊपर वाला बनाता है और उसमें हमारी कोई मर्जी नहीं चलती। जो मिलता है हमें उसी में संतुष्ट रहना होता है और उसी को खुशी-खुशी स्वीकार करना पड़ता है। परंतु दोस्ती ही एक ऐसा रिश्ता होता है जो हम अपने मन से बनाते हैं। अगर घरवालों से नाराज़गी हो जाए तो हमें माफी मिल जाती है क्योंकि उनसे हमारा खून का रिश्ता होता है जो चाहकर भी टूट नहीं सकता चाहे हमारी गलती कितनी भी बड़ी क्यों न हो। परंतु दोस्ती नामक रिश्ते में अगर कड़वाहट आ जाए तो उसकी डोर टूट जाती है जो वापस कभी जुड़ नहीं सकती। अगर हम उसे वापस जोड़ना भी चाहें तो भी उसमें गाँठ तो पड़ ही जाती है, जिसपर हम विश्वास नहीं कर सकते की वह गाँठ कब तक डोर के दोनों हिस्सों के ज़ोर को संभाल पाएगी।

 देख ली दुनियादारी, बस मतलब की है यारी।

हालातों ने सिखाया है कि आज के युग में दोस्त सिर्फ इसलिए बनाए जाते हैं ताकि हमें दुनिया की भीड़ में अकेला ना रहना पड़े।

     श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती के किस्से तो पुरी दुनिया जानती है, उनकी दोस्ती भी शायद इसलिए ही चल पाई थी क्योंकि श्री कृष्ण स्वयं भगवान थे जिन्होंने खुद कोई गलती की नहीं और सुदामा की सभी गलतियों को नज़रअंदाज कर दिया। वहीं दुसरी ओर दोस्ती का दुसरा उदाहरण है अंगराज कर्ण और दुर्योधन। जिसमें अंगराज कर्ण दुर्योधन के अहसानों तले इतने दबे हुए थे कि खुद सच्चे होते हुए भी उन्होंने बुराई का साथ दिया और वीरगति को प्राप्त हो गए।

       जिंदगी में हमें कुछ ऐसे लोग मिलते हैं जो पहले दोस्त बनते हैं लेकिन वो दोस्ती सिर्फ स्वार्थ के लिए की जाती है, अगर स्वार्थ पुरा होता है तो वह दोस्ती बहुत आगे तक जाती है वरना उनके रास्ते ही बदल जाते हैं और वो हमसे दुर जाने के बहाने ढुँढने लगते हैं। जब कोई बहाना नहीं मिलता तो छोटी-छोटी बातों पर ही नाराज़ होने लगते हैं। ऐसा करने से तो अच्छा है ना कि साफ-साफ मुँह पर ही बोल दिया जाए कि बात ही नहीं करनी। जब दोस्ती सिर्फ स्वार्थ की ही थी तो रूठने-मनाने का तो कोई मतलब ही नहीं है।

     जिंदगी में कहने को तो दोस्त बहुत बनते हैं पर ऐसे कुछ चुनिंदा दोस्त ही होते हैं जिन्हें हम अपना मानते हैं और जिनके नाराज़ होने से हमें फर्क पड़ता है।

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