उलझी सी मैं


                                     उलझी सी मैं

कहने को तो घर महज़ एक चार-दीवारी है, पर बसती उसमें मेरी दुनिया सारी है।

छोड़ा था घर ये सोचकर कि बड़े शहर में जाऊँगी तो नये सपने देखुँगी और उन्हें साकार करुँगी क्युँकि पुराने सपनों पर तो ईश्वर ने ही मिट्टी डाल दी थी। सोचा न था कि ज़िंदगी में कुछ इस कदर बदलाव आएगा कि खुद  को भी नहीं पहचान पाऊँगी। अनजान शहर था और अनजान लोग थे तो सोचा कि उनमें घुलने-मिलने की कोशिश करुँ। सोचा था कि नए लोगों के बीच नयी चीज़ें सीखुँगी, लेकिन नए शहर ने तो मुझे पहले जैसा भी नहीं छोड़ा। अँधेरे को देखकर सहम सी जाती हूँ मैं, घर की ही चार-दीवारी के बीच सिमट जाने का मन करता है। लगता है अनजान लोगों की भीड़ में मैंने खुद को कहीं खो दिया है। हालातों के कारण इतनी बदल सी गई हूँ मैं कि अपनी एक मुस्कुराहट से हज़ारों ग़मों को छुपाने का हुनर सीख गई हूँ। हँसते-हँसते भी जब आँखें अपना दर्द बयाँ कर देती हैं और आँखों से आँसु छलक जाते हैं तो लोग कहते हैं कि ऐसी लड़की कभी नहीं देखी, जिसे अपने जज़्बात भी बयाँ नहीं करने आते। पर अब ये किस से कहुँ कि खुद की खुशी में मस्त रहने वाली लड़की अब जब दुसरों की खुशी में भी अपनी खुशी ढुँढती है तो लोग कहते हैं कि मतलबी बन गई हूँ मैं। अब तो किसी से कुछ कहने से भी डरती हूँ मैं क्योंकि धीरे-धीरे सबसे नाता टुटता जा रहा है। बस इसी उधेड़बुन में उलझी रहती हूँ मैं कि न जाने कब किसके चेहरे से नकाब उतर जाए। अपने ही सवालों में उलझती जा रही हूँ मैं। किस मोड़ पर आ गई है मेरी ज़िंदगी, बस इसी कश्मकश में ज़िंदगी बिता रही हूँ मैं।






Comments

  1. सच कहा विभा, अपनी मन में चल रही व्यथा को लिख कर बयां करोगी तो मन हल्का होगा।

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  2. अपनी-अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप सबका बहुत-बहुत शुक्रिया

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